ग्वालियर बेंच का दूरगामी निर्णय: पति ने ‘धोखे’ का दिया था डिजिटल सबूत, पत्नी बोली ‘निजता का हनन!’; कोर्ट ने दिया संतुलन का संदेश
ग्वालियर, 16 जून, 2025: जब विश्वास की डोर टूटती है और पति-पत्नी के रिश्ते की बुनियाद हिल जाती है, तो दर्द केवल दिलों तक सीमित नहीं रहता। आज के डिजिटल युग में, यह पीड़ा और भी गहरे व्यक्तिगत स्तर पर उतर आती है, जब बेडरूम की फुसफुसाहटें और निजी WhatsApp चैट्स तक अदालत के कटघरे में सच्चाई बयां करने को मजबूर हो जाते हैं। मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की ग्वालियर बेंच ने एक ऐसे ही संवेदनशील और दूरगामी मामले में एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने स्पष्ट कर दिया है कि तलाक जैसे पारिवारिक विवादों में WhatsApp चैट्स को सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है, भले ही उन्हें कथित तौर पर ‘अवैध’ तरीके से हासिल किया गया हो। यह निर्णय निजता के अधिकार और न्याय की पुकार के बीच एक गहरा संतुलन स्थापित करता है, जो आधुनिक रिश्तों की जटिलताओं पर रोशनी डालता है।
विश्वासघात की दास्ताँ: जब ‘प्यार’ का फोन बन गया ‘राज’ खोलने का ज़रिया
यह मामला ग्वालियर के श्रीमती अंजलि शर्मा (पत्नी) और रमन उपाध्याय (पति) के बीच बिखरते रिश्ते की दुखद कहानी है। पति रमन ने अपनी पत्नी पर क्रूरता और विवाहेतर संबंध (adultery) के गंभीर आरोप लगाते हुए तलाक की अर्जी दी थी। इस कहानी में सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि पति ने अपनी पत्नी के कथित ‘धोखे’ का सबूत देने के लिए उनके निजी WhatsApp चैट्स अदालत में पेश किए। पति का दावा था कि उसने पत्नी के फोन में एक खास एप्लिकेशन इंस्टॉल किया था, जिसके बाद पत्नी के सारे चैट्स स्वचालित रूप से उसके फोन पर फॉरवर्ड हो जाते थे। यह एक ऐसी घटना थी, जहाँ एक भरोसेमंद रिश्ता, डिजिटल जासूसी के भंवर में फंस गया और निजी बातचीतें सबके सामने आ गईं, जिससे रिश्ते की गरिमा ही दांव पर लग गई।
निजता की दीवार बनाम न्याय की पुकार: अदालत की कठिन चुनौती
अदालत में जब पति ने इन ‘अत्यंत व्यक्तिगत’ WhatsApp चैट्स को सबूत के तौर पर पेश करने की कोशिश की, तो पत्नी अंजलि और उनके वकील ने कड़ा विरोध किया। उन्होंने तर्क दिया कि पति का यह कृत्य उनकी क्लाइंट की सहमति के बिना उसके मोबाइल में घुसपैठ कर किया गया था, जो निजता के मौलिक अधिकार का सीधा उल्लंघन है। उन्होंने इसे गैरकानूनी तरीके से सबूत इकट्ठा करना बताया और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 43, 66 और 72 के उल्लंघन का भी हवाला दिया।
लेकिन पति के लिए, यह उनके आरोपों को साबित करने और न्याय पाने का अंतिम प्रयास था। यह फैमिली कोर्ट और बाद में हाईकोर्ट के सामने एक गंभीर नैतिक और कानूनी चुनौती बन गई: क्या किसी व्यक्ति की निजता का अधिकार इतना सर्वोपरि है कि न्याय की तलाश में उसे भी दरकिनार कर दिया जाए? अदालत को यहां दो महत्वपूर्ण अधिकारों के बीच संतुलन साधना था – एक व्यक्तिगत जीवन की गोपनीयता, दूसरा निष्पक्ष सुनवाई का मौलिक अधिकार।
हाईकोर्ट का संतुलन भरा फैसला: न्याय के लिए ‘निजी बातचीत’ भी अब अदालत में, पर कुछ ‘शर्तों’ के साथ
जस्टिस आशीष श्रोती की एकल पीठ ने इस जटिल मानवीय और कानूनी उलझन को बड़ी बारीकी से समझा। कोर्ट ने फैमिली कोर्ट्स एक्ट, 1984 की धारा 14 और 20 के विशेष प्रावधानों पर प्रकाश डाला, जो पारिवारिक विवादों में सबूतों के कठोर नियमों में ढील देते हैं, ताकि न्याय प्रभावी ढंग से मिल सके।
- निजता बनाम न्याय का संतुलन: हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ मामले का हवाला दिया, जिसमें निजता को मौलिक अधिकार माना गया था। हालांकि, कोर्ट ने स्पष्ट किया कि निजता का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है। जब निजता और निष्पक्ष सुनवाई (जो स्वयं एक मौलिक अधिकार है) के अधिकार आपस में टकराते हैं, तो व्यापक न्याय के हित में निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार प्रबल हो सकता है। अदालत ने माना कि यदि प्रासंगिक सबूतों को सिर्फ इसलिए खारिज कर दिया जाए कि वे अवैध रूप से प्राप्त किए गए हैं, तो इससे सत्य और न्याय की खोज बाधित होगी।
- साक्ष्य कैसे भी मिलें, प्रासंगिकता महत्वपूर्ण: कोर्ट ने जोर दिया कि सबूतों की स्वीकार्यता का प्राथमिक मानदंड उनकी प्रासंगिकता है, न कि उन्हें कैसे प्राप्त किया गया है। यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी पक्ष सिर्फ इसलिए न्याय से वंचित न हो जाए कि उसके पास मौजूद सबूत ‘पारंपरिक’ तरीकों से नहीं आए हैं।
अदालत का स्पष्ट संदेश: सबूत ‘स्वीकार’ होंगे, पर हर बात ‘जांच’ में खरी उतरनी होगी!
इस संवेदनशील फैसले के साथ, हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट्स के लिए कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण और कड़े दिशा-निर्देश भी जारी किए, ताकि ऐसे सबूतों का दुरुपयोग न हो और न्याय के साथ खिलवाड़ न हो:
- सत्यता की कड़ी जांच: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि केवल सबूत रिकॉर्ड पर लेने से उनकी सत्यता साबित नहीं होती। फैमिली कोर्ट को WhatsApp चैट्स की प्रामाणिकता और सटीकता की बेहद कठोरता और सावधानी से जांच करनी होगी। किसी भी तरह की छेड़छाड़ या हेरफेर की संभावना को पूरी तरह से खारिज किया जाना चाहिए।
- अवैध संग्रह पर ‘कानूनी तलवार’: कोर्ट ने यह भी साफ किया कि यदि किसी ने अवैध तरीके से सबूत जुटाए हैं (जैसे निजता का उल्लंघन करके), तो उसे दीवानी या आपराधिक कानून के तहत अलग से जवाबदेह ठहराया जा सकता है, भले ही उसके सबूत अदालत में स्वीकार कर लिए गए हों। न्याय की राह में अवैधता का कोई स्थान नहीं।
- गोपनीयता और सम्मान: चूंकि ये चैट्स बेहद निजी होते हैं, इसलिए फैमिली कोर्ट को इन-कैमरा (बंद कमरे में) सुनवाई करनी चाहिए, ताकि किसी भी पक्ष की प्रतिष्ठा या भावनाओं को सार्वजनिक रूप से ठेस न पहुंचे।
- कितना भरोसा करें?: कोर्ट ने स्पष्ट किया कि इन सबूतों पर कितना भरोसा करना है, यह पूरी तरह से फैमिली कोर्ट के विवेक पर निर्भर करेगा, जो मामले की परिस्थितियों और अन्य साक्ष्यों को ध्यान में रखेगा।
इन सभी शर्तों और मानवीय पहलुओं को ध्यान में रखते हुए, मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने फैमिली कोर्ट के 13 अप्रैल, 2023 के आदेश को बरकरार रखा और पत्नी द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया। यह फैसला न केवल डिजिटल युग में तलाक कानूनों के लिए एक महत्वपूर्ण मिसाल है, बल्कि उन सभी जोड़ों के लिए भी एक गंभीर चिंतन का विषय है जिनके निजी जीवन अब डिजिटल डेटा के रूप में अदालतों तक पहुँच रहे हैं, जहाँ न्याय की तलाश में निजता की कीमतें चुकानी पड़ सकती हैं।
Source:
- मध्य प्रदेश हाईकोर्ट का आदेश – MISC. PETITION No. 3395 of 2023 (Smt Anjali Sharma Versus Raman Upadhyay), दिनांक 16 जून, 2025