अमेरिकी आदेश पर भारतीय कानून भारी: MP हाईकोर्ट ने सीधे नहीं दी बेटे की कस्टडी, पिता की याचिका खारिज|

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में अंतरराष्ट्रीय बाल कस्टडी विवादों को लेकर अपनी स्थिति स्पष्ट की है। कोर्ट ने एक पिता द्वारा दायर हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने अमेरिका की न्यू जर्सी कोर्ट के आदेश के आधार पर अपने नाबालिग बेटे की कस्टडी मांगी थी। हाईकोर्ट ने साफ कहा कि किसी विदेशी अदालत के कस्टडी आदेश को सीधे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 (रिट क्षेत्राधिकार) के तहत लागू नहीं किया जा सकता।


धारा 226 का सीधा प्रयोग नहीं: विदेशी आदेशों पर हाईकोर्ट का स्पष्ट रुख

जस्टिस आनंद पाठक और जस्टिस राजेंद्र कुमार वानी की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 226 का उपयोग किसी विदेशी फैसले को सीधे लागू करने के लिए नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अमेरिकी कोर्ट के कस्टडी आदेश पर भारत में किसी सक्षम सिविल कोर्ट द्वारा ही विचार किया जा सकता है। इसके लिए सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) की धारा 44A (विदेशी निर्णयों का प्रवर्तन) और धारा 13 (विदेशी निर्णय कब निर्णायक नहीं होते) के प्रावधान उपलब्ध हैं। कोर्ट का यह फैसला अंतर्राष्ट्रीय बाल कस्टडी मामलों में भारतीय न्यायिक प्रक्रिया की स्वायत्तता को रेखांकित करता है।


अमेरिकी विवाह, भारतीय कस्टडी: क्या है पूरा मामला?

याचिकाकर्ता पिता और प्रतिवादी नंबर 2 (मां) का विवाह 2013 में हुआ था और वे शुरुआत में संयुक्त राज्य अमेरिका में ही रहते थे। उनका बेटा 2015 में टेक्सास में पैदा हुआ। इसके बाद, 2018 में, मां बच्चे के साथ भारत लौट आईं और तब से अपने परिवार के साथ यहीं रह रही हैं। अप्रैल 2023 में, अमेरिका की न्यू जर्सी कोर्ट ने पिता को तलाक दे दिया और बच्चे की एकमात्र कानूनी व शारीरिक कस्टडी का अधिकार उन्हें दे दिया। पिता ने आरोप लगाया कि मां ने बच्चे को वापस अमेरिका भेजने से इनकार कर दिया है, जिसके बाद उन्होंने बच्चे को कोर्ट में पेश करने और वापस अमेरिका भेजने के लिए अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट में हैबियस कॉर्पस याचिका दायर की थी।


बच्चे का कल्याण सर्वोपरि: सुप्रीम कोर्ट के फैसलों का हवाला

हाईकोर्ट ने अपने तर्क में बच्चे के कल्याण को सर्वोपरि रखा। कोर्ट ने गौर किया कि बच्चा 2018 से अपनी मां के साथ भारत में रह रहा है और उसे किसी भी तरह से अवैध रूप से हिरासत में रखने या नुकसान पहुंचाने का कोई आरोप नहीं है। कोर्ट ने नित्या आनंद राघवन बनाम दिल्ली राज्य (2017) मामले में सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण फैसले का हवाला दिया। इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि बच्चे का कल्याण सबसे ऊपर है, विदेशी अदालतों के आदेश अंतिम या सीधे बाध्यकारी नहीं होते, और भारतीय अदालतों को ऐसे मामलों में स्वतंत्र जांच करनी होगी। कोर्ट ने दोहराया कि अनुच्छेद 226 का दायरा विदेशी निर्णयों को सीधे लागू करने तक नहीं है।


वैकल्पिक कानूनी रास्ते: सिविल कोर्ट ही अंतिम समाधान

खंडपीठ ने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता पिता के पास अपनी मांग पूरी करने के लिए वैकल्पिक कानूनी उपाय मौजूद हैं। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता सीपीसी की धारा 44A और धारा 13 व 14 जैसे विभिन्न प्रावधानों के तहत सिविल कोर्ट में जा सकते हैं। यदि आवश्यक हो और कानून अनुमति दे, तो वे अभिभावक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के तहत भी कार्यवाही कर सकते हैं। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसा करते समय याचिकाकर्ता को सीपीसी की धारा 13 में दिए गए अपवादों को संतुष्ट करना होगा, जो यह तय करते हैं कि विदेशी निर्णय कब निर्णायक नहीं होते।


मानवीय अपील, कानूनी आदेश नहीं: पिता को बेटे से मिलने की सलाह

हालांकि हाईकोर्ट ने हैबियस कॉर्पस की रिट जारी करने का कोई आधार नहीं पाया और याचिका खारिज कर दी, लेकिन कोर्ट ने मानवीय दृष्टिकोण दिखाते हुए एक महत्वपूर्ण सलाह दी। कोर्ट ने कहा कि पिता होने के नाते, याचिकाकर्ता मां (प्रतिवादी नंबर 2) से अपने बेटे से मिलने का अनुरोध कर सकते हैं। यदि मां उचित समझें, तो व्यक्तिगत रूप से या वीडियो कॉल के माध्यम से मिलने की अनुमति देना उनका विवेक होगा। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह न्यायालय द्वारा एक अपेक्षा है, न कि कोई आदेश या निर्देश, और यह पूरी तरह से पति-पत्नी के बीच का मामला है जिसे मां को तय करना है।


फैसले का निहितार्थ: अंतरराष्ट्रीय बाल कस्टडी विवादों के लिए नजीर

यह फैसला अंतरराष्ट्रीय बाल कस्टडी विवादों में भारतीय अदालतों के रुख को और मजबूत करता है। यह स्पष्ट करता है कि भारत में बच्चों के कल्याण को किसी भी विदेशी अदालत के आदेश से ऊपर रखा जाएगा, और ऐसे मामलों में भारतीय कानून के तहत उचित न्यायिक प्रक्रिया का पालन करना अनिवार्य है। यह निर्णय उन सभी अभिभावकों के लिए एक महत्वपूर्ण नजीर बनेगा जो विदेशी कस्टडी आदेशों को सीधे लागू कराने की उम्मीद करते हैं।

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