गाडरवारा ,नरसिंहपुर से जबलपुर तक बेबस किसानों का आक्रोश, न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने और शोषण से टूट रही कमर
मध्य प्रदेश, 5 जून, 2025: मध्य प्रदेश के खेतों में सोना उगाने वाले किसानों की आँखें आज नम हैं, और दिल निराशा से भरा है। अपनी गाढ़ी कमाई का सही दाम पाने और सरकारी नीतियों की अनदेखी से त्रस्त अन्नदाता अब सड़कों पर उतरने को मजबूर हैं। नरसिंहपुर में जहाँ किसानों ने अपनी अनसुनी पीड़ाओं को लेकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन सौंपा है, वहीं जबलपुर के पाटन बाईपास पर अपनी मूंग और उड़द की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से भी कम दाम पर बेचने को मजबूर किसान चक्काजाम कर रहे हैं। यह सिर्फ विरोध प्रदर्शन नहीं, बल्कि उन लाखों हाथों की बेबसी है जो दिन-रात देश का पेट भरने के लिए संघर्ष करते हैं, पर आज खुद के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

गाडरवारा नरसिंहपुर: ‘उम्मीदें सूख रहीं’, किसान का दर्द अनसुना
गाडरवारा नरसिंहपुर जिले के किसानों की व्यथा किसी से छिपी नहीं है। राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ ने मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव को एक हृदय विदारक ज्ञापन सौंपा है, जिसमें उनकी कई अनसुलझी परेशानियाँ झलकती हैं:
- मूंग की अनमोल फसल पर संकट: गर्मियों की कड़ी धूप में तैयार की गई मूंग की फसल आज खेतों में ही खड़ी है, क्योंकि सरकार ने अब तक समर्थन मूल्य पर खरीदी शुरू नहीं की है। किसानों को डर है कि उनकी सालभर की आय का यह एकमात्र सहारा बिचौलियों के हाथों औने-पौने दामों पर बिक जाएगा या खेतों में ही बर्बाद हो जाएगा। यह उनकी मेहनत का अपमान है, और भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न।
- बकाये का बोझ और बढ़ती मुश्किलें: कौडिया की शक्ति शुगर मिल पर किसानों का ₹20 प्रति क्विंटल का पुराना बकाया अब तक नहीं चुकाया गया है। यह राशि उनके बच्चों की पढ़ाई, घर के राशन और दवाओं के लिए बेहद ज़रूरी है, पर यह पैसा अब तक नहीं मिल पाया है।
- बिजली बिलों की मनमानी: किसानों के खेतों के पंप और घरेलू बिजली बिल बिना किसी स्पष्टीकरण के बेहिसाब बढ़ा दिए गए हैं। यह बढ़ोतरी उनकी कमर तोड़ रही है और उन्हें और गहरे कर्ज में धकेल रही है।
- जंगली जानवरों का आतंक: चीतल और शूकर जैसे जंगली जानवर लगातार खेतों में घुसकर खड़ी फसलों को बर्बाद कर रहे हैं, पर दुर्भाग्य से प्रशासन इस समस्या पर उदासीन है। अन्नदाता अपनी फसल बचाने के लिए रात-रात भर जागने को मजबूर है।
- मंडी में छल: मंडी प्रांगण में अनाज की तुलाई के वक्त 700 ग्राम प्रति क्विंटल का अतिरिक्त वजन काटा जा रहा है। यह सीधे तौर पर किसानों की कमाई पर डाका है, जिससे उनकी पहले से ही कमज़ोर आर्थिक स्थिति और दयनीय हो रही है।
- एनटीपीसी डंपरों से जान का खतरा: रात में एनटीपीसी के भारी डंपर खेतों और ग्रामीण रास्तों से तेज़ गति से गुज़रते हैं। इससे न केवल धूल और शोर से परेशानी होती है, बल्कि किसानों और उनके परिवारों के लिए हादसों का खतरा भी बना रहता है, जिससे उनकी रातों की नींद हराम है।
जबलपुर: MSP न मिलने पर सड़क पर उतरे किसान, चक्काजाम से फूटा गुस्सा

जबलपुर के पाटन बाईपास पर भी आज यही गुस्सा और बेबसी सड़कों पर दिखी। मूंग और उड़द की फसल को तय न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) से काफी कम दाम पर खरीदे जाने से नाराज़ किसानों ने चक्काजाम कर दिया।
- MSP का मजाक: सरकार ने मूंग के लिए ₹8682 प्रति क्विंटल और उड़द के लिए ₹7400 प्रति क्विंटल का MSP तय किया है। लेकिन मंडियों में उड़द ₹6300 से ₹6700 तक और मूंग ₹6850 प्रति क्विंटल के मॉडल दर पर खरीदी जा रही है। किसान मजबूरन घाटे में अपनी फसल बेचने को मजबूर हैं, यह एमएसपी के मूल उद्देश्य का सीधा उल्लंघन है।
- अधिकारियों की पहल: किसानों के चक्काजाम से जबलपुर-दमोह मार्ग पर भारी जाम लग गया। स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पाटन एसडीएम मानवेंद्र सिंह राजपूत सहित प्रशासनिक अधिकारी मौके पर पहुंचे और किसानों से बातचीत कर उन्हें शांत किया। बातचीत के बाद ही चक्काजाम समाप्त हो सका।
उम्मीदों का संघर्ष: सरकार की नीति पर गंभीर सवाल
इन दोनों घटनाओं से मध्य प्रदेश में किसानों की दुर्दशा और सरकार की कृषि खरीद नीतियों पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं। एक तरफ जहाँ सरकार एमएसपी तय करती है, वहीं दूसरी तरफ खरीद केंद्रों पर किसानों को उचित मूल्य नहीं मिलता।
- बड़ा असमंजस: इस साल मूंग की समर्थन मूल्य पर खरीदी को लेकर अभी भी कोई स्पष्ट निर्देश नहीं हैं। पिछले दो वर्षों से राज्य कृषि विभाग मूंग की खरीदी करता रहा है, लेकिन इस बार अधिकारी अनिश्चितता में हैं। कुछ रिपोर्टों में यह भी सामने आया है कि मोहन यादव सरकार ने मूंग को एमएसपी पर न खरीदने का फैसला लिया है, जिसकी वजह खरपतवारनाशक के उपयोग से स्वास्थ्य को खतरा बताया गया है। यदि यह सच है, तो यह किसानों के लिए एक और बड़ा आघात होगा।
- अस्तित्व की लड़ाई: किसान संगठनों ने साफ चेतावनी दी है कि यदि उनकी मांगों पर ध्यान नहीं दिया गया, तो वे बड़े आंदोलन पर उतरने को मजबूर होंगे। यह केवल मूल्य की बात नहीं, बल्कि अन्नदाताओं के सम्मान, उनकी कड़ी मेहनत के मोल और उनके अस्तित्व की लड़ाई है। वे खेतों में हार नहीं मानते, पर जब व्यवस्था ही चुप हो जाए, तो उन्हें अपनी आवाज़ को आंदोलन बनाना पड़ता है।